मज़हब है सिखाता आपस में बैर रखना: मदीने से आज तक

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पिछले चार सालों में कई बार हम कुछ कल्पनायें करके आनंदित होते रहें हैं कि एक दिन हम बलूचिस्तान को तोड़ देंगें, फिर ये भी कल्पना उभरी कि एक अलग सिंधु देश भी बन रहा है और एक ने तो अति-उत्साह में ये कह दिया कि हम अगले साल पी०ओ०के० में तिरंगा फहराएंगें।

'अज्ञानता के आनंदलोक' में विचरण कर रहे इन लोगों को देखकर मैं यही समझने की कोशिश करता रहा कि बलूचों को या सिन्धों को या पी०ओ०के० वाले कश्मीरियों को पाकिस्तान से अलग करके या भारत में मिलाकर ही हम क्या हासिल कर लेंगे? ये तो खैर बाहर की बात थी मैं तो यही अपने कश्मीर को लेकर भी सोचता था कि कश्मीरियों का दिल जीतने की कोशिश का हासिल क्या है? उनको खुश करने से निकलेगा क्या?

मेरे ऐसा सोचने की बुनियादी वजह ये थी कि इन मसलों पर सोचने और रणनीति बनाने वालों ने इस पर हर एंगल से सोचा पर जिस अकेले एंगल पर सोचना था वो वही नहीं सोच पाये इसलिये कश्मीर आज भी नासूर बना हुआ है और जब तक उस पर इस एंगल से न सोचा जायेगा वो नासूर ही बना रहेगा।

"कश्मीर को जोड़ने" या "पाकिस्तान को तोड़ने" के लिये बस एक एंगल से सोचने की जरूरत है और वो एंगल है "मजहब". जिसके ऊपर कभी विचार ही नहीं किया गया कि हम अगर कश्मीर को जोड़तें हैं या पाक को तोड़ते हैं तो इससे मिलना क्या है?

हमने एकहत्तर में पाकिस्तान को तोड़ा और बांग्लादेश बनाया, हासिल? एक और कट्टर उन्मादी पड़ोसी का जन्म जिसने हमारे सारे लोगों को केवल तीस-चालीस साल में निगल लिया और हमारे धर्मस्थान जमींदोज कर दिये बल्कि इससे कहीं आगे जाकर अपने देश को आईसिस और आई०एस०आई० की शरणस्थली बना दी और हमारे सारा एहसान के बदले हमें ठेंगा दिखा दिया। एक सेकुलर बांग्लादेश सेकुलरिज्म के बोझ को बीस साल भी नहीं झेल सका और उसने दो दशक के अंदर ही अपनी फितरत दिखा दी।


आप अगर कश्मीर के मसले को सिर्फ और सिर्फ "मजहबी एंगल" से देखते तो आपको पता चलता कि एक गैर-मुस्लिम मुल्क में कहीं से भी वहां की बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी ये बिलकुल भी पसंद नहीं करती कि उनके ऊपर काबिज हुक्मरान किसी और मजहब का हो। जहाँ ये अल्पसंख्यक हैं वहां तो फिर भी सब्र कर लेंगे पर कश्मीर जैसी जगहों में ये असंभव है। मैं अपने शब्द दुहरा रहा हूँ: ये असम्भव है कि वो अपने ऊपर किसी गैर-मुस्लिम हुक्मरान को काबिज होते देखेंगे भले ही आप उनके आगे बिछ जायें।


पिछले चौदह सौ सालों में न तो किसी ने ऐसे होता देखा है, न आज देख रहा है और न आगे कभी होते देखेगा।

सबक सीखनी हो तो इतिहास सबसे बेहतर "टीचर" होता है। मदीना तो शहर ही यहूदियों का था। वहां की सैन्य-शक्ति, व्यापार और राजनीति सबपर इनका नियंत्रण था पर क्या उनके साथ समझौते की गाड़ी चली? क्या ईसाईयों के साथ चली? क्या मजूसियों के साथ चली? क्या बौद्ध लोगों के साथ चले? क्या हमारे साथ चली?

अगर नहीं चली तो फिर कश्मीर में कैसे चल जाती?

आपके तर्क भी बेहूदे और बचकाने होतें हैं जब आप ये कहते हो कि इनकी कूटनीति (?) के चलते कश्मीरियों का नैरेटिव बदल रहा है तो आपको "सोने के पहाड़" वाला वाकिया जरूर पढ़ना चाहिए जिसका संक्षिप्त सबक ये है कि आप इनके आगे, इनके नीचे बिछ भी जायेंगें तो भी आप इनका दिल नहीं जीत सकते और न ही अपनी शर्तों पर इन्हें झुका सकतें हैं। आप बलूचिस्तान, सिंधु देश या पी०ओ० के० को तोड़कर भी केवल और केवल अपने चारों ओर घृणित पड़ोसियों की संख्या बढ़ाएंगें और कुछ नहीं और अगर आपको इसके इतर कुछ अच्छे ख्याल हैं तो फिर आपके ऊपर केवल हँसा ही जा सकता है।

हरेक प्रयोग या सबक के लिये ये जरूरी नहीं है कि हम स्वयं ही उसका अनुभव करें, जहर खाने से हम मर सकतें हैं इसे हर कोई प्रयोग करके नहीं देखता बल्कि इसे दूसरे के अनुभव से ही सीखता है इसलिये कई बार हमें दूसरों के अनुभवों से भी सीखने की जरूरत होती है जिसे हमने कम से कम कश्मीर और पाकिस्तान के मसले पर बिलकुल भी नहीं अपनाया।

आप लाख कहते रहिये कि पिछले चार सालों की ये रणनीति थी, ये कूटनीति थी, कश्मीर के युवकों का ये माइंडसेट चेंज हुआ, वो नरेटिव बदला, अलगाववादी एक्सपोज हो गये पर हकीकत ये है कि ये चार साल आपके लिये केवल और केवल विफलता के हैं जिसने इस मसले में अब और सुधार की गुंजाईशओं को खत्म कर दिया है।

आप बहुत देर कर चुके हैं। घर में आग लगने के बाद दो-तीन एल्मुनियम और टीन के बर्तन बचा लेने को आप अगर उपलब्धि समझतें हैं तो और बात है।

अगर आपके पास उस मजहब और उस मजहब से निःसृत सोच का अध्ययन या आकलन नहीं है तो आपको कोई हक नहीं है कश्मीर पर बोलने का। बिना मजहब के इल्म का अगर आप कश्मीर पर प्रवक्ता बनतें हैं तो फिर भविष्य आपको क्षमा नहीं करेगा।

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