हिन्दी दिवस का औचित्य?

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भाषाई-दिवस मनाने की परम्परा किसी और देश में नहीं पनपी क्योंकि वहाँ भाषा पर सवाल नहीं उठते।भाषा को लेकर विवाद और आंदोलन नहीं हुआ करते।अब इस देश में आंदोलन की परम्परा रही है-भाषा, धर्म, क्षेत्र सब को लेकर, तो यहाँ दिवस भी मनाए जाते हैं।

देश में कोई राष्ट्र-भाषा है नहीं, हो भी नहीं सकती, संविधान की नाव में बैठ कर हिन्दी राजभाषा बनी है, वही बहुत है।

सवाल अब ये होना भी नहीं चाहिए, मुद्दा भाषा से उठ कर भाषा की अस्मिता पर टिक जाता है। भाषा की अस्मिता उसके साहित्य पर निर्भर है।

कहा जाता रहा है कि 'साहित्य समाज का दर्पण है,' पर क्या केवल दर्पण भर हो लेने से सहित्य की ज़िम्मेदारी या यूँ कहें कि उसकी उपयोगिता पूरी हो लेती है?

दर्पण आस-पास की चीज़ों को दिखाता है, पर यह आईना अंधेरों में काम नहीं करता। अंधेरी रातों में जब कुछ नहीं सूझता, तब आईना भी कुछ नहीं दिखाता, आईने को उजाले की दरकार होती है, दिखाने के लिए।

साहित्य को दर्पण भर न रह कर, दिया बनना होगा कि हर अँधेरे कोनों में उजाला भरा जा सके। साहित्य की उर्ज़ा और ताप में मार्गदर्शन की, रास्ता प्रशस्त करने की क्षमता ज़रूर हो।

साहित्य केवल सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विषयवस्तु को दिखाता ही नहीं, यह नए सामाजिक, राजनीतिक संदर्भों को गढ़ता भी जाता है।इसके अंदर वो सामाजिक उर्ज़ा है कि ये आम-जन के भीतर क्षोभ, दया, प्रेम, घृणा, निराशा, प्रतिशोध, सम्मान जैसे भाव पूरे सामाजिक परिदृश्य में फैला सके, ठीक उसी तरह जिस तरह एक दिये से दूसरा और फिर तीसरा जलाया जा सकता है।

साहित्य का समावेशी होना भी ज़रूरी है ताकि वह दीर्घकाल तक जीवित रह सके। भाषा एक माध्यम है और साहित्य उसकी पहचान। सुदृढ़ पहचान सुदृढ़ साहित्य पर निर्भर होती है। क्षेत्रीय साहित्य भी समग्रता लिए लिखा जा सकता है, तो हिंदी के साथ साथ क्षेत्रीय भाषाएँ को पढ़ा जाना, उन्हें लिखा जाना भी महत्वपूर्ण है।

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