विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु

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विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरुया कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता, या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना......

हमारा भारत और हिन्दू धर्म दुनिया से इस मायने में अलग और विलक्षण है कि हमने हमेशा ज्ञान के महत्त्व को सबसे पहले समझा और इसे बाकी सब चीजों के ऊपर रखा। दुनिया की अलग-अलग सभ्यताओं और संस्कृतियों में जहाँ भोजन, आवास, सुरक्षा आदि को क्रमिक विकास के केंद्र में रखा गया है वही हमारे यहाँ सबसे पहले 'ज्ञान' की बात की गई है। 'विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु' कहते हुये हम जो प्रार्थना करते हैं उसमें भी सबसे पहले हमने 'ज्ञान' ही माँगा है और ज्ञान के बाद बाकी चीजों की इच्छा जताई है।
पश्चिम में इल्हाम होता है, वहां ज्ञान की प्राप्ति के लिये न तो साधना की आवश्यकता है, न ज्ञान की और न ही गुरु की बस जादू की तरह इल्म उतर जाता है। इसलिये आपने सेमेटिक मजहबों के नबियों और पैगम्बरों के बारे में कभी भी नहीं सुना होगा कि उन्होंने ज्ञान अर्जन के लिये कुछ किया या उनके कोई गुरु हुये पर अपने यहाँ ऐसा नहीं है। बिष्णु अवतार राम और कृष्ण भी जब इस धरा पर आये तो कोई जादू नहीं हुआ, उन्हें भी वशिष्ठ, विश्वामित्र और संदीपनी जैसे गुरुओं के चरणों में बैठकर सरस्वती की उपासना करनी पड़ी। मतलब ज्ञान ज्ञान अनायास ही नहीं आ जाता, उसके लिये सरस्वती की साधना करनी पड़ती है।
ऋषि दयानंद कहते थे कि जब मानव-जाति इस धरती पर आई तब उसके मार्गदर्शन के लिये ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरस नाम के ऋषियों के हृदय में सबसे पहले वेद का प्रकाश किया था यानि हिन्दू इतिहास का पहला पन्ना वेदमंत्रों से खुलता है, उस वेद से खुलता है जिसका अर्थ ही है ज्ञान। सरस्वती की आराधना का क्रम वेदों के बाद भी नहीं रूकता। हम उपनिषदों की बात करते हैं तो उपनिषद का अर्थ ही है 'समीप उपवेशन' या 'समीप बैठना यानि विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना। हमारे सारे पुराण भी संवाद रूप में ही है। रामायण की कथा भी एक श्लोक "मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः...... के विस्तार के नतीजे में ही साकार हुई। महाभारत में ही गीता है जिसमें विस्तार से 'ज्ञान-योग' की बात की गई है।
यानि हिन्दू धर्म में कोई कहीं हो या न हो ज्ञान की देवी 'माँ शारदा' सब जगह हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् में राजा जनक महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं- जब सूर्य अस्त हो जाता है, चंद्रमा की चांदनी भी नहीं रहती और आग भी बुझ जाती है, उस समय मनुष्य को प्रकाश देने वाली कौन-सी वस्तु है? ऋषि उत्तर में कहतें हैं - वह वाक है, उस अवस्था में वाक ही मानव को प्रकाश देता है। इस वाक् की अधिष्ठात्रि देवी माँ शारदा ही तो हैं वेदों की अधिष्ठात्रि हैं, जो रावण के रचे शिव-तांडव स्तोत्र की प्रेरणा हैं। यही शारदा कुम्भकर्ण के निद्रासन वाले वरदान में हैं। यही शारदा भारत को ज्ञान का तलवार लेकर विश्व के सांस्कृतिक दिग्विजय का आदेश देने वाली भी हैं जब वो महर्षि कण्व और महर्षि और्व को मल्लेछ भूमि की ओर भेजतीं हैं। इसलिये उन भूमियों से 'या खुदा... या मौला.. या अल्लाह' जैसे संबोधन निकले जिसे हमने अपनी माँ शारदा की स्तुति में रचे थे.... या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता, या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना.....
संगीत और राग-रागिनियों में भी माँ सरस्वती ही हैं। हमारे ग्रंथों में माघ शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) को वाग्देवी सरस्वती के प्राकट्य का दिन माना गया है इसलिये हम लोग वसंत पंचमी के दिन माँ की आराधना करते हैं और उनसे कहतें हैं कि तू है माँ तो हम शत्रुन्जयीं हैं, तू है तो हम लक्ष्मीवंत हैं, तू है तो हम यशस्वी हैं, तो है तो हम निरोगी हैं, तू है तो हमारा मान है और तू है तो हमें किसी और बात की चिंता नहीं है।
माँ तेरे वरदपुत्र महाराज भोज ने धारा नगरी में तेरे दिव्य-स्वरुप को प्रतिमा के रूप में स्थापित किया था। तेरे उस प्राकट्य-स्थली पर स्थित तेरी प्रतिमा को एक मलेच्छ 'अलाऊदीन खिलजी' ने खंडित किया था। तूने हमें सामर्थ्यवान बनाया था कि हम तुझे फिर से वहां प्रतिस्थापित करने कर अपने पूर्वजों का संकल्प पूर्ण करें पर कुछ लोगों के सत्ता की हवस आपके सम्मान पर हावी हो गई।
ऐसे सब लोगों में आप सद्बुद्धि का संचार करो माँ.....
अकेले तेरे उपासक बनकर हम शक्ति और लक्ष्मी दोनों का आशीर्वाद प्राप्त कर सकतें हैं। हमारे मन को शुभ-संकल्पों की ओर ले चलो माँ ..'या कुन्देन्दुतुषारहारधवला............

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